“जो भी आज सरल का चुनाव करेगा,
कल उसका जीवन बहुत कठिन होगा“
ऐसा कहना है, हमारे हाथरस के जाने माने शिक्षक श्री नीरज के शर्मा सर का| नीरज के शर्मा सर सिर्फ एक शिक्षक ही नहीं बहुत से विद्यार्थियों के लिए वरदान है| जो कि हर प्रकार से उनकी मदद करने के लिए तत्पर रहते है|
तो दोस्तों स्वागत है आपका हमारे Blog Website में, में हूँ विकास पाठक और आज के इस ब्लॉग में-में आपको बताने वाला हूँ नीरज के शर्मा सर द्वारा कही गयी “एक पिता की विवशता” कहानी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा ज़िला हाथरस अपनी कुछ विशेषताओं के लिए देश भर में जाना जाता है जैसे हींग, बूरा, मिठाईयां एवं चांट पकौड़ी। जब बात चांट पकौड़ी की आती है तो मुख्य शहर की होली वाली गली का नाम लेना आवश्यक हो जाता है। होली वाली गली यूंही पूरे शहर में “फूड स्ट्रीट” के नाम से नहीं जानी जाती। यहां खाने के लिए चाइनीज, फास्ट फूड से लेकर शुद्ध भारतीय भोजन तक उपलब्ध रहता है। इस बेहद संकरी गली को मात्र अपने विविध व्यंजनों के लिए ही नहीं दिन भर लगने वाले ट्रैफिक जामों के लिए भी जाना जाता है। इन्हीं जामों के बीच रेंगते वाहनों के बीच खड़े होकर चांट खाने का अपना ही एक अलग आनंद होता है विशेष रूप से तब जब आप गोलगप्पे जैसी संवेदनशील चांट को मुंह में रखने वाले हों और तभी बर्तनों से भरे एक रिक्शे वाला आपको आवाज़ देकर ब्रजभाषा में कहता है “नैक पल्लंग कूं हटियों”। इस फूड स्ट्रीट की पूरे शहर में एक अलग ही “फैन फॉलोइंग है, शहर के अलग अलग कोनों से चांट के शौकीन शाम को इसका रुख करते हैं और इसे देर रात्रि तक गुलजार रखते हैं। इस गली का महत्व तब और बढ़ जाता है जब हम लोगों के यहां किसी बाहरी शहर से कोई रिश्तेदार आ जाता है, तब अचानक ही यह गली हाथरसवासियों के लिए गर्व अर्जित करने का एक माध्यम बन जाती है।
होली वाली गली से थोड़ा परे हट कर मैं आपको अपना भी परिचय दे देता हूं, मुझे यहां लोग नीरज के शर्मा के नाम से जानते हैं, मेरा एक कोचिंग इंस्टिट्यूट है जिसके कारण युवाओं के बीच अपनी एक ठीक ठाक पहचान है। लेकिन इस सामाजिक पहचान के अतरिक्त मित्रों एवं विद्यार्थियों के बीच भी अपनी एक पहचान है “चांटाहारी प्राणी” के रूप में। शाम को बैच पढ़ाने के बाद अपना एक ही शौक रहा है किसी विद्यार्थी या मित्र के साथ पूरे बाज़ार का व्यर्थ ही भ्रमण करना और होली वाली गली की चांट खाना । इसी शौक ने स्लिम ट्रिम दिखने के अपने एक पुराने सपने को सदैव एक सपना ही बने रहने में मदद की है। अब मैं आपको उस घटना की ओर ले चलता हूं जिसके कारण मैं यह कहानी लिख रहा हूं। वह वर्ष 2015 की कड़ाके की सर्दियों की एक रात थी हमेशा की तरह अपनी क्लास समाप्त करके मैंने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और बाज़ार भ्रमण पर निकल पड़ा, आज मैं सामान्य से बहुत विलम्ब से निकला था और भ्रमण के अंतिम पड़ाव के रूप में होली वाली गली पहुंचा, एक पनीर डोसा ऑर्डर किया और बेसब्री से अपने स्पेशल पनीर पेपर डोसा का इंतजार कर रहा था जिसके लिए मैंने डोसा वाले को बहुत समझा बुझाकर तैयार किया हुआ था, उसी समय वहां पर एक परिवार का आगमन हुए जिसमें तीन सदस्य थे पिता, पुत्री एवं पुत्र। पुत्री आयु में बड़ी थी उसकी आयु लगभग 10 वर्ष रही होगी जबकि पुत्र लगभग 7 वर्ष का। ऐसे स्थानों पर परिवारों का आना एक सामान्य घटना होने के कारण उनकी एक हल्की सी झलक देखने के बाद मैं फिर अपने डोसे में व्यस्त हो चला था। अगले कुछ ही पलों के बाद उनके बीच में होने वाली खुसर फुसर ने एक बार फिर मेरा ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया तो मैंने कुछ और भी नोटिस किया, उनके वस्त्रों की देखकर अनुमान लगाना आसान था कि यह एक मजदूर परिवार था और पिता अपने बच्चों की किसी पुरानी जिद को पूरा करने के लिए उन्हें चांट खिलाने के लिए लाया था। उनकी बीच की धीमी बातचीत को ध्यान से सुनने के बाद मैंने यह जान पाया कि क्या और कितना खाना है जैसी शर्तें घर पर ही तय करके के बाद वे बाज़ार की ओर निकल थे लेकिन चांट के ठेले पर पहुंच कर अब बच्चों का मन विचलित था तथा उन शर्तों के विरूद्ध विद्रोह करने के लिए सज्ज हो चुका था जिनके लिए मूक सहमति देकर वे घर से निकले होंगे। पिता उन्हें बार बार याद दिला रहा था कि उन्हें एक डोसे को ही आधा आधा खाना है जबकि पुत्र अब पावभाजी खाने का भी दृढ़ निश्चय कर चुका था। इधर लड़के की जिद बढ़ती जा रही थी उधर पिता मानसिक रूप से कमजोर होता जा रहा था पंरतु उसकी जेब उसका साथ देने से साफ इंकार कर रही थी। लड़की बार बार “मुझे नहीं खाना, मेरा मन नहीं है, इसे खिला दीजिए” जैसे वाक्यों का प्रयोग करके नारी त्याग के अलिखित सिद्धांत को सत्य सिद्ध करने के लिए तत्पर दिखाई दे रही थी। पिता के मन में विवशता और प्रेम के बीच एक मानसिक द्वंद चल रहा था जिसमें विवशता स्पष्ट रूप से विजय प्राप्त करती प्रतीत हो रही थी। उसकी आंखों में संतान प्रेम अब जल बनकर उमड़ने लगा था परन्तु सामाजिक मर्यादा का भाव उसे उन भावनाओं को व्यक्त करने से रोक रहा था। इन तीन विवश शरीरों के एक और विवश आत्मा भी थी “मैं” स्वयं, उनके बीच के वार्तालाप को आधा अधूरा सुनने एवं पूर्णतः समझने के बाद मेरा डोसा खाना अब पीछे छूट चुका था। मेरे मन में भी एक द्वंद जन्म ले चुका था कि मुझे इनकी मदद करनी चाहिए या नहीं। स्वभाव से मैं उनकी मदद करना चाहता था लेकिन यह निश्चय नहीं कर पा रहा था कि वे मेरी मदद स्वीकार करेंगे या नहीं? कहीं मेरे द्वारा दिया गया धन संबंधी प्रस्ताव उनकी आत्मा को घायल तो नहीं कर देगा? और मैं अभागा कुछ निर्णय ले पाता उससे पहले ही वे लोग “किसी अन्य स्थान पर अच्छा मिलता है वहीं खाएंगे ” कह कर वहां से चले गए।
वहां से आने के बाद में कई बार उस घटना को याद करके रोया और बेचैन हुआ। वह रात और उसके बाद आने वाली कई रातें मुझे भुतहा रातों जैसी प्रतीत हुई। मैं बार बार अपने आप को कोसता रहा कि क्यों मैंने उनकी मदद नहीं की? मेरा मन अनेकों प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए व्याकुल था यथा क्या धन वास्तव में इस संसार की सबसे बड़ी आवश्यकता है?
क्या सभी को इतना धन नहीं कमाना चाहिए कि उन्हें अपनी संतानों की छोटी छोटी ख्वाहिशों का गला ना घोंटना पड़े? क्या इतनी दर्दनाक होती हैं माता पिता की विवशताएं? क्या संतानें कभी अपने माता पिता के इन दर्दों को समझ पाएंगी?और भी ऐसे अनेकों प्रश्न जिनके उत्तरों की तलाश जारी है। ऐसी और कहानी पढ़ने के लिए avpuc.com Website को Subscribe करे।
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Nicely framed blog .. And really inspiring
What a story
Heart touching 💓
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