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हृदय एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ परमात्मा रहता है।

 

इस मनुष्य देह में हृदय एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ परमात्मा रहता है। उपनिषद् का यह वचन देखिये…

“स वा एष आत्मा हदि तस्यैतदेव निरुक्तं हृद्यमिति
तस्माद्ह्रदयमहरहर्वा एवं वित्स्वर्गं लोकमेति ।’ ( छान्दोग्य उपनिषद् ८।३।३। )

वह यह आत्मा हृदय में है। ‘हृदि अयम्’ (यह हृदय में है) यहाँ इसका निरुक्त वा व्युत्पत्ति है। इसी से यह हृदय है। इस प्रकार जानने वाला पुरुष प्रतिदिन स्वर्ग को जाता है।

इसी से मन को हृदय में निरुद्ध करने की बात की जाती है। गीता में कृष्ण का अर्जुन के प्रति वचन है …

“सर्व द्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मुयधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥”
(गीता ८ । १२ )

हृदय में ही ज्ञान होता है। इस ज्ञान की तलवार से अज्ञानजन्य संशय का छेदन करने की बात भी कृष्ण ने अर्जुन से कही है…

‘तस्मादज्ञानसंभूतं इत्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।। ‘ (गीता ५ । ४२ )

जिसे गीता और उपनिषद् की इस बात का बोध है, वह निश्चय ही प्रतिदिन स्वर्ग में निवास करता है। वह उच्चस्थ है। वह ब्रह्मस्वरूप है। कबीर को इसका बोध था। वे कहते हैं…

‘कस्तूरी कुण्डल वसै, मृग दुई बन माहि।
ऐसे हिय में ईश है, दुनियाँ जानत नाहि ।।’
【कुण्डल=नाभि=हृदय】

अतः हृदयस्थ राम को साक्षी मान कर में श्री पं. जी को प्रणाम करता हूँ। आगे ऋषियों के गूढ वचनों पर अपनी तपो बुद्धि से विचार करता हूँ। हमारे पुराण, कथाओं के माध्यम से शाश्वत सिद्धान्त बताते। हैं। उनकी शैली रोचक किन्तु गुप्त है। उन्हें सब लोग नहीं समझते। केवल ब्रह्मबुद्धि प्राणी जानता है। यह ठीक भी है। ज्ञान को गोपनीय रखा जाना चाहिये, जिससे अनधिकारी उसे न पा सके। जो अधिकारी है, उसके सामने वह गोप्य ज्ञान स्वयं प्रकट होता है।

ब्रह्मा जी ने पुष्य नक्षत्र को विवाह के लिये शाप दिया। पुष्प में विवाह नहीं किया जाता। यहाँ पुष्य का अर्थ समझना आवश्यक है। पुष्य= पुष्प। पुष्य = पुष्य (पालन करना, खिलना) + क्यप् । पुष्प= पुष्प (विस्तार करना, खिलना) + अच्। जब पौधा सम्यक् वृद्धि को प्राप्त होता है तो उसमें पुष्प निकलता है। जब कन्या सम्यक् वृद्धि को प्राप्त होती है तो उसमें भी पुष्य (दुग्धाशय एवं रजः स्राव) होता है। पुष्प में पंखुड़ियाँ होती हैं। कन्या में उरोज होते हैं। पुष्प में परागकण होता है। कंन्या में रजोधर्म होता है। विकसित पुष्प में गन्ध सौन्दर्यएवं परागकण होता है। विकसित कन्या में लावण्य, स्तन एवं मासिक धर्म होता है। रजोधर्मा कन्या को पुष्यवती/पुष्पवती कहा जाता है। प्रतिमास होने वाले मासिक रक्तस्राव का नाम ही पुष्य वा पुष्प है।

२७ नक्षत्र हैं। जिस नक्षत्र में एक बार मासिक स्राव होता है, पुनः उसी नक्षत्र के आने पर लाव पुनः होता है। एक नक्षत्र एक दिन का होता है। २७ दिन के बाद २८ वे दिन फिर वही नक्षत्र आता है। इस प्रकार एक स्वस्थ नारी को २८ वें दिन मासिकस्राव होता है। इसमें आहार-विहार, देशकाल-पात्र के भेद से एक-दो दिन का आगे-पीछे अन्तर पड़ता है। रजः स्राव का काल देह भेद से ४ से ५ दिन तक चलता है। जितने दिन तक रजोदर्शनस्रवण चलता है, उतने दिन तक नारी की पुष्यावस्था होती है। पुष्य अवस्था में उससे संभोग / मैथुन वर्जित है। पुष्य अवस्था-इनदो पदों में उत्तरपदविलोप समास होने पर पुष्य पद बचता है। अतः पुष्यावस्था वा पुष्य में विवाह नहीं करना चाहिये। इसमें विवाह करने का फल है-अनिषेचन । रजोनिवृत्ति होने पर ही निषेचन (निषेक) किया जाता है। रजःखाव की प्रक्रिया इस काल में निरन्तर होती रहती है। इस लिये उपस्थोपरि भस्म वा रुई रख कर उसे नीचे गिरने से रोक कर सुखाते (अवशोषित करते) हैं। इस काल में पुरुष स्त्री का संसर्ग / पाणिग्रहण करे गा तो कामावेश में उसका वीर्य योनि के भीतर न जा कर बाहर गिरेगा। चाहे वह ब्रह्मा के समान ही क्यों न हो ? काम पर विजय पाना कठिन है।

ज्योतिष शास्त्र में पौष मास विवाह के लिये निषिद्ध है। यहाँ तक कि इसमें विवाह के वचन भी नहीं किये जाते। इसे खर मास कहा जाता है। अर्थ स्पष्ट है। पुष्यवती स्त्री का शरीर पीप होता है। पौष =पुष्प आर्तव से युक्त । पौष शरीर गर्भाधान के अयोग्य होता है। फिर विवाह कैसे हो सकता है ? पुराण में कथा आती है- पौष / पुष्य युक्त चन्द्रमा / पुष्य नक्षत्र में विवाह के लिये उद्यत ब्रह्मा को अपनी पुत्री वाणी को देख कर कामोद्भव हुआ। उनके रोम कूपों से ६० हजार अंगुष्ठतनुधारी बालखिल्य अषि उत्पन्न हुए। इसमें कितना रहस्य है सत्य को नग्न रूप में नहीं अपितु मर्यादित ढंग से कहा गया है। ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हुआ और वह बाहर गिरा। वीर्य में शुक्राणु होते हैं। इनका आकार अंगुष्ठवत् (लम्बा एवं लघु) होता है। प्रथम वीर्यपात में शुक्राणुओं की संख्या ६० हजार होती है। जब पुरुष का वीर्य नारी के योनिमार्ग से होता हुआ गर्भाशय में पहुंचता है तो शुक्राणु स्त्री के रज (अण्ड) से मिल कर जीव को जन्म देता है। यही क्रिया निषेचन/ निषेक/ गर्भाधान है। विवाह का यही उद्देश्य है। पुष्यावस्था इस उद्देश्य को पूरा नहीं करती। रजोनिवृत्ति होने के बाद स्नाता स्त्री इसके योग्य होती है। इस लिये विवाह का नक्षत्र / समय निर्धारित करते समय इसका ध्यान रखना चाहिये।

यह निश्चित है कि एक बार जिस नक्षत्र में मासिक धर्म दिखेगा, अगले महीने उस नक्षत्र वा उस नक्षत्र के आसपास वाले नक्षत्र में पुनः मासिक होगा। वह नक्षत्र और उस के आसपास वाले नक्षत्र पुष्य (आर्तव) नक्षत्र हुए। विवाह का समय निर्धारित करने मे इसका ध्यान रखना चाहिये। इसका ज्ञान कन्या की माता को होता है। कन्या की माता से पूछ कर ज्योतिषी मुहूर्त का निर्णय करे। कन्या की माता को कंन्या के आर्तव काल का ज्ञान होता है, पिता आदि को नहीं।

धर्मशास्त्रीय दृष्टि से अब पुष्प शब्द पर विचार करता हूँ। कन्या के अनुमती (पुष्यवती) होने पर उस पर से उसके पिता का अधिकार उठ जाता है। ऐसा मनु का मत है। इसलिये पुष्यवती होने के पूर्व विवाह की अनुशंसा की गई है। व्यास जी कहते हैं…

‘अष्टवर्षा भवेद गौरी नववर्षा च रोहिणी।
दशवर्षा भवेद् कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला ।’

【८ वर्ष तक गौरी संज्ञा, ९ वर्ष तक रोहिणी संज्ञा, १० वर्ष वर्ष तक कन्या संज्ञा तथा इसके ऊपर रजस्वला संज्ञा स्त्रियों की होती है।】

मरीचि कहते है…

‘गौरी ददन्नाकपृष्ठं वैकुण्ठं रोहिणी ददत् ।
केन्याददद्बह्मलोकं रौरवं वृषली ददत् ॥

[गौरी के दान से स्वर्ग की, रोहिणी के दान से वैकुण्ठ को कंन्या के दान से ब्रह्मलोक की तथा वृषली के दान से रौरव नरक की प्राप्ति होती है ।]

वात्स्य कहते हैं…

“गौरी विवाहिता सौख्यसम्पन्ना स्यात्पतिव्रता,
रोहिणी धनधान्यादि पत्राद्या सुभगा भवेत्।
कंन्या विवाहिता संम्पत्समुद्धा स्वामिपूजिता ।।’

वास्तव में विवाह को संस्कार माना गया है। संस्कार में कामोपभोग, (स्त्री पुरुष मिलन संगम) नहीं होता। केवल कंन्या पुरुष विशेष से बंध जाती है। इससे उसकी चित्तवृत्ति अन्य पुरुष में नहीं प्रवेश करती । ऐसा पुरुष पक्ष के लिये भी है। इसीलिये हमारे यहाँ विवाहोपरान्त विषम वर्षो (१, ३, ५, ७, ९) में कंन्या का गौना होता है। पतिगृह गमन को गौना कहते हैं।

कन्यावस्था में विवाह संस्कार (कन्यादान) करना तथा पुष्ट यौवनावस्था में गौना देना (पति के घर भेजना), की परम्परा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। कालचक्र का ऐसा प्रभाव ही है। अब विवाह संस्कार नहीं, कामक्रिया होती है।

कनन्या शब्द कम् और न्यास (नि अस्+घञ्) से बना है।

कम् विष्णु । न्यास = स्थापन, अध्यारोपण, प्रग्रहण।
कम्+ न्यास कन्न्या = कंन्या।

‘स’ वर्ण का विलोप होकर उत्तरांशलोप समास हुआ। कन्या का अर्थ है-शुद्ध अमल श्रेष्ठ श्रेष्ठ वस्तु का दान श्रेष्ठ पात्र को देना कंन्यादान है। यह धर्म है। कलियुग में कन्यादान न होकर कामिनी की क्रय-विक्रय क्रियाका सम्प्रचार है।

अतः मेरे मत से पुष्य नक्षत्र निर्दोष है। जब मूल नक्षत्र में विवाह हो सकता है तो नहीं ? दोनों का स्वामी शनि है। विवाह में पुष्य का निषेध शास्त्र की सत्य वाणी को न समझने के कारण में क्यों पुष्य । व्यास जी कहते हैं…

‘शास्त्र यदि भवेदेकं श्रेयो व्यक्तं भवेत्तदा।
शास्त्रैश्च बहुभिर्भूयः श्रेयो गुहां प्रवेशितुम् ॥’ (महाभारत शांतिपर्व २८७ । १०)

[शास्त्र यदि एक हो तो श्रेय (कल्याण) का ठीक ठीक ज्ञान हो, शास्त्रों के अनेक होने से श्रेय को समझपाना बहुत कठिन है।]
#shulba #कालचिन्तन

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