यार यह बेचैनी क्या सच में जीने नहीं देगी। पहले तो ऐसा कभी नहीं था, पर पहले छलye भी तो नहीं गए थे। हम क्या यह गलती हमारे सीधे पन की है या फिर यह तुम्हारी शतिरमिजज़ाज़ी है। अरे गुस्सा मत हो, आरू हमें पता है, तुम शातिर नहीं हो। हां पर तुम प्रैक्टिकल बहुत हो। तुम तो हमेशा सच ही बोलती हो तभी तो तुम ने साफ-साफ कह दिया। ‘धीरे-धीरे छोड़ दो मुझे’ फिर तो यह मेरी ही ना समझी थी। मतलब पर मैं भी तो मजबूर हूं। ‘मोहे विसरत नाही’
नहीं नहीं, यह दुख तो अंतहीन है। अब तो यह जीवन भी निरस निरस सा प्रतीत होता है। अब इस को मैं और नहीं सह पाऊंगा। मैं इसे आज ही खत्म कर दूंगा
और ऐसा सोचते हुए अभिनव भाई अपने बिस्तर से उठ कर बाहर निकल जाते हैं। रात के 2:00 बज रहे हैं। सड़क पर भी निपट सन्नाटा है और अभिनव भाई चले जा रहे हैं। तभी दाईं तरफ से रोशनी आती दिखती है।
यह रोशनी तो रेलवे क्रॉसिंग दिख रही है। आज में ट्रेन के नीचे आकर अपनी जान दे दूंगा और तभी अभिनव भैया रेल के सामने कूद जाते हैं। वैसे ही जैसे कोई चोर पहाड़ी पर भाग रहा हो और उसके पीछे पुलिस लगी हो और अचानक देखकर सामने खाई है। वह पुलिस से बचने के लिए वह खाई में भी कूद जाए या फिर किसी अज्ञानी की तरह जो मोह से निवृत्ति के लिए मृत्यु को ही अंतिम विकल्प मानते हैं। खैर जो भी हो, अभिनव भैया कूद गए। पर यह क्या अभिनव भैया को किसी ने पीछे से अपनी तरफ खींच लिया। अभिनव भैया ने मुड़कर देखा रात के अंधेरे में शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की किरणें उसके चेहरे पर तिरछी पड़ रही थी। जिससे वह चेहरा भी रजत सदृश्य हो गया था। अभिनव भैया को समझते देर नहीं लगी कि यह कोई और नहीं आरू है।
अभिनव – आरू तुमने हमें क्यों रोका देख लो, हम तुम्हें फिर कभी परेशान नहीं करते। तुम्हारे लिए तो अच्छा ही होता। हम सच बताएं तो हम तुम्हें परेशान करना भी नहीं चाहते। पर हमें तुम्हारी सच में बहुत याद आती है। मैं तो यह सोच कर ही बहुत बेचैन हो जाता हूं कि तुम अब मुझसे दूर जा रही हो। देखो ऐसा मत करो समझो ना बात को हमारी | हम तुमसे।अलग करके कुछ नहीं देखते हैं। हम तो इस जीवन की कल्पना भी तुम्हारे बिना नहीं करते। अग नहीं तो हमे जाने दो
आरू – तुम आखिर किसके लिए इतना दुखी हो रहे हो। मेरे लिए मैं कौन मेरा यह शरीर पर यह तो वह नहीं है जिसे जिसके लिए तुम इतना बेचैन हो रहे हो। खुद देख लो, यह तो कोशिकाओं से निर्मित है। शरीर है जो एक निश्चित काल के बाद स्वता समाप्त हो जाती हैं। फिर नई कोशिकाएं उनका स्थान ले लेती हैं। समझे कुछ??
अभिनव- यह तुम क्या बोल रही हो। मेरे तो कुछ समझ नहीं आ रहा। तुम ज्यादा चालाक मत बनो। यह सब समझ गया। तुम मुझे भटकाने की कोशिश कर रही हो। मेरी अर्धविक्षिप्त अवस्था का फायदा उठाने का यतकिंचित भी प्रयास मत करना। मेरा तुमसे दिल का प्यार है। आत्मा का प्यार है भला तुम ऐसा सोच भी केसे सकती हो ?
आरू – अच्छा आत्मा का प्रेम है तो फिर भी इतना दुखी हो रहे हो जो आत्मा तुम्हारे अंदर है। वही तो मेरे अंदर है। फिर यह संबंध तो सदा सर्वदा अभिन्न है जैसे सोना सोने का आभूषण जैसे राधा-कृष्ण जल में जल की तरंगो की तरह फिर यह कैसा विलाप?
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