एक बड़े कम्युनिष्ट नेता ने कहा था कि अगर हमारे पास स्वामी करपात्री जी महाराज जैसा नेतृत्व होता तो हम पूरी दुनिया को लाल रंग से रंग देते, परन्तु दुर्भाग्य है हिंदुओं का जो ऐसी विभूति को का साथ नहीं दे पा रहे हैं।
पूज्य गुरुदेव श्रीमज्जगद्गुरु पुरी शंकराचार्य जी महाराज बताते हैं कि एक बार स्वामी वामदेव जी महाराज ने भरे मंच से रोते हुए कहा था कि जब दांत थे ,तब चने नहीं, अब चने हैं तो दांत नहीं
अर्थात जब धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज साधुओं को सनातन धर्म की रक्षा के लिए आवाहन करते तब जागृति नहीं थी, जब जागृति आयी तब हिम्मत नही बची।
यह बहुत ही मार्मिक प्रश्न है कि क्या हिन्दू समाज धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज की जिजीविषा के साथ न्याय कर पाया..!!
आज भी उन्हीं के द्वारा प्रदत्त नारे प्रत्येक हिन्दू के अनुष्ठान में लगाया जाता है…
धर्म की जय हो !
अधर्म का नाश हो !
प्राणियों में सद्भावना हो!
विश्व का कल्याण हो!
यह सनातन धर्म के उद्घोष को गुंजायमान करने वाला हिन्दू समाज वास्तव में आज भी धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज की प्रासंगिकता को समझने में असमर्थ है।
स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी कार्यशैली से अंग्रेजों की कूटनीति को मात देने में सक्षम धर्मसम्राट जब अपनी उज्ज्वल कीर्ति के साथ सनातन जन मानस के हृदय में अपना स्थान बनाने लगे तब अंग्रेजो को बड़ी चिंता हुई कि अगर परम्पराप्राप्त वर्णाश्रम धर्म के नायकत्व में भारत स्वतन्त्र होता है तो हमारी सारी नीतियां धरी की धरी रह जायेंगीं।
बारीकी से अध्ययन करने वाले इतिहास के विद्यार्थियों को यह पता है कि भारत में साम्प्रदायिकता का चरणबद्ध विकास अंग्रेजों की एक सोची समझी चाल थी । मुसलमानों में मुस्लिम लीग तो हिंदुओं में आर्य समाज जैसी चरमपंथी संस्थाओं का विकास अंग्रेजों की शह पर हुआ था।
आर्यसमाज तो अंग्रेजों के लिए मनोवांछित वर जैसा साबित हुआ, जिसकी जानकारी स्वयं आर्यसमाज के प्रमुख व्यक्तियों को भी न थी। अंग्रेज भारत में मुसलमान व हिन्दू के समक्ष एक विभाजनकारी प्रकृति का निर्माण करना चाहते थे। आर्य समाज का घर वापसी आंदोलन ने देश में एक ऐसा वातावरण उत्पन्न किया कि एक देश में दो राष्ट्र की आवाज उठने लगी।
स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाले तमाम सज्जन भी आर्यसमाज के प्रवाह में आये और जाने – अनजाने में उनकी ऊर्जा का स्रोत परम्पराप्राप्त सनातन धर्म को कमजोर करने में व अंग्रेजो की साम्प्रदायिक नीति के विकास में अपनी भूमिका प्रस्तुत करने लगा
ऐसी स्थिति में स्वामी करपात्री जी का उभरना तो अंग्रेजों के लिए मानो वज्रपात ही था। अंग्रेजों
की कूटनीति के शिकार गाँधी, नेहरू व अम्बेडकर भी जमकर हुए।
गांधी उस युग के एकमात्र ऐसे लोकप्रिय नेता थे जो भारत के जन जन में प्रसिद्ध थे। सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर वो साबरमती के तट पर निवास करते समय गांधी जी को स्वामी करपात्री जी महाराज का सात दिनों का रामराज्य पर प्रवचन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और वहीं से उनके मन में रामराज्य की परिकल्पना का उदय होता है ।
उन्होंने करपात्री जी से मिलने का समय मांगा और कहा कि हिन्दू धर्म की कुछ मान्यताओं पर मेरा विश्वास नहीं है, इसलिए हम आपसे इस पर चर्चा करना चाहते हैं,
चूंकि गांधी की शिक्षा दीक्षा अंग्रेजी विधि से हुई थी तो परंपरा में प्रश्न उठना स्वाभाविक था। पूर्व में भी अपने बयानों व कार्यों के चलते व हिन्दू समाज के निशाने पर आ चुके थे। उनके साबरमती आश्रम में शौचालय साफ करने का कार्य ब्राह्मण ही किया करते थे ( जिनमें काका कालेकर का नाम प्रमुख हैं) ।
इस बात की जानकारी स्वामी करपात्री जी महाराज को थी। उन्होंने अपने संदेश में कहा कि गणित के नियमों के सदृश सनातन धर्म की मान्यताएं हर काल, परिस्थिति में प्रासंगिक व सत्य ही हैं और उन्होंने मिलने से मना कर दिया।
अब गांधी जी को रामराज्य का सिद्धांत ऐसा फबा कि वो हर सभा व लेख में उसका उल्लेख करने लगे। अंग्रेजों ने भी उनके इस विचार को अपनी शह दी और गांधी जी आजादी के नायक से महात्मा के रूप में भारतीयों के हृदय में स्थापित हो गए।
यह बात सर्वविदित थी कि गांधी जी की आस्था समाजवाद व वामपंथ में भी बहुत थी , उनका नेहरू के प्रति लगाव भी इसी बात को प्रमाणित करता है। अंग्रेज भारत में उसी को वास्तव में सत्ता देना चाहते थे जो मनुवाद का विरोधी हो,
और अम्बेडकर इत्यादि प्रख्यात व्यक्तियों की सहायता से उन्हें अपने इस योजना को चरितार्थ करने में बहुत सहायता मिली।
कालांतर में नेहरू राजनेता के रूप भारत मे ख्यापित होकर भारत के प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो गांधी जी एक आध्यात्मिक विचारक के रूप में भारत में राष्ट्रपिता की पदवी को प्राप्त कर लेते हैं।
उस समय के साक्ष्य कहते हैं कि गांधी व नेहरू अंग्रेजो की कठपुतली की तरह कार्यरत थे। नेहरू चुनाव हारने के बावजूद गांधी के हठ के ही कारण प्रधानमंत्री बने। गांधी ने जब यह कहा कि मेरी लाश पर पाकिस्तान बनेगा तो स्वामी करपात्री जी ने उनका विरोध करते हुए कहा कि गांधी झूठ बोल रहे है और अंदर से विभाजन हेतु समझौता हो चुका है।
अंग्रेज सरकार ने स्वामी करपात्री जी महाराज को लाहौर जेल में बंद कर दिया और विभाजन के पश्चात ही उन्हें रिहा किया। स्वतन्त्र भारत के प्रथम कैदी के रूप में स्वामी करपात्री जी महाराज अब अंग्रेजो की कूटनीति से रचे पचे लोकतांत्रिक भारत में सनातन हिन्दू धर्म के रक्षणार्थ स्वयं को तैयार करने लगे।
गांधी जी की हत्या के बाद चितपावन ब्राह्मणों पर अचानक बढ़े अत्याचार व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध ने हिन्दू जनता में त्राहि त्राहि मचा दी। उस समय स्वामी करपात्री जी ने खुलकर सरकार का विरोध करते हुए नेहरू सरकार को घुटनों के बल पर लाकर खड़ा कर दिया
संघ का प्रतिबंध हटा और स्वामी जी की कीर्ति फिर से शिखर पर। नेहरू समेत अंग्रेज बहुत चिंतित हुए उनके पास अब गांधी जी के बराबर का कोई चेहरा न था जिसे वह करपात्री जी के सामने खड़ा कर सके ।
उस समय बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से विनोबा भावे को लांच किया गया। वही विनोबा भावे जो गौ आंदोलनों का उपहास उड़ाते थे उन्हें गौ सेवक और भूदान आंदोलन के माध्यम से जनता में प्रसिद्ध कराने का एक प्रयास किया गया।
इधर स्वामी करपात्री जी महाराज जो सिद्धांतों के लिए ही जीवन धारण करते थे, उन्हें अपने सहयोगियों जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जनसंघ इत्यादि से कदम कदम पर धोखा ही मिला।
बहुत कम व्यक्ति जानते हैं की राम जन्मभूमि आंदोलन, कृष्ण जन्मभूमि आंदोलन ,भगवान विश्वनाथ का आंदोलन, वनवासी कल्याण आश्रम, स्वामी करपात्री जी महाराज द्वारा ही प्रेरित था ,
जिसको संघ ने समय-समय पर अपने महत्व को ख्यापित करने व तुच्छ राजनैतिक मनोकामना की पूर्ति में पोषित किया।
सनातन संत समाज में स्वामी करपात्री जी महाराज सूर्य के समान देदीप्यमान रहे ।
इंदिरा गांधी के द्वारा कराए गए उन पर अत्याचार पर तो लेखनी कांप सी जाती है ।
हजारों साधुओं की हत्या, दूध पीते बच्चों को मौत के घाट उतारा जाना जैसी निर्मम घटना को भी हिंदुओं के द्वारा भूल जाना हिंदुओं के उत्तरोत्तर पतन को ही ख्यापित करती है।
धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज की प्रासंगिकता आज भी उसी तरह से सिद्ध है जिस तरह से उनके जीवन काल में उनके द्वारा लिखित सिद्धांतों के बल पर वास्तव में पुनः विश्व में रामराज्य की प्रतिष्ठा की जा सकती है,
इसके लिए समस्त हिंदू समाज को एकत्रित के सूत्र में बंधकर कार्य करने की आवश्यकता है।
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प्रशान्त कुमार मिश्र
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