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दो शब्द

दो शब्द
अखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकतानस्वेतरसमस्तवस्तुविलक्षणानन्तज्ञानानन्दैकस्वरूप-अखिलब्रह्माण्डाधिनायक श्रीमन्नारायण भगवान् की करुणामयी कृपा का ही परिणाम यह मानव शरीर है ।इस प्रकार अनेकों वर्णसम्प्रदायादि के रूप में विभक्त समस्त प्राणियों का परम धर्म अथवा कर्तव्य है – जड़चेतनात्मक रूप में स्थित प्राणियों का कल्याण करना।

धर्मो नामप्राणिरक्षणोपायिकतया क्रियमाणा वृत्तिविशेषा।

कर्तव्याकर्तव्य का विचार करते हुए वेद भगवान् जिन कर्तव्य कर्मों का प्रतिपादन करते हैं वास्तव में वही धर्म है, ठीक इसके विपरीत अधर्म जानना चाहिए।

“वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:”।

इस प्रकार जनमानस के हितार्थ भगवान् ने सर्वप्रथम नि:श्वासात्मक वेदों को प्रकट किया इसलिए वेद साक्षात् नारायणस्वरूप हैं।

“वेदो नारायण: साक्षात्”

सर्वप्रथम वेद भगवान् ही कृपा करने के लिए महर्षि वाल्मीकि जी को निमित्त बनाकर श्रीमद्रामायण के रूप में प्रकट हुए। मैं तो कहा करता हूँ कि जिस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में राघवेन्द्र श्रीरामजी का अवतरण हुआ, उसी प्रकार से साक्षात् वेद भगवान् ही श्रीमद्रामायण के रूप में अवतीर्ण हुए।

वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे।
वेद: प्राचेतसादासीत्साक्षात् रामायणात्मना॥

बालकाण्ड से लेकर उत्तरकाण्ड पर्यन्त सप्तकाण्डों में श्रीरामायण के रूप में वेद भगवान् का अवतरण हुआ इसलिए श्रीरामायणान्तर्गतागत सभी चरित्र परम पवित्र एवं सत्य हैं। जब हमारे कर्म सन्तशास्त्रानुमोदित होंगे तभी श्रीरामायण जी के सभी चरित्र सत्य प्रतीत होंगे। केवल वाक्प्रतिभा का प्रयोग करके अर्थ को बदल देना विद्वत्ता नहीं है। विद्वत्ता का परिचय तब जाना जाता है जब श्रुतिसिद्धान्तानुसार हो। विविध व्याकरण, साहित्य इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन केवल अनर्गल प्रलाप करने एवं मनमाना अर्थ करने के लिए नहीं है।

श्रीरामभद्राचार्य की व्याकरण वाक्यरचनाशैली नि:सन्देह सराहनीय है, परंतु वे व्याकरण सिद्धान्त के अनुसार शब्दों का, व्युत्पत्ति शैली से मनमाना और अनुचित अर्थ करने के लिये बाध्य हैं जो समाज को भ्रमित करने वाला है, साथ ही साथ स्वयं की पतनशीलता का कारण भी बन सकता है।

इस प्रकार श्रीरामभद्राचार्य की व्याख्या एवं कथन मूल ग्रन्थ से हटकर है जो सिद्धान्तपरक न होकर केवल प्रतिभा का प्रदर्शनमात्र है। श्रीरामभद्राचार्य जी श्रीसीताजी का पुनर्वनवास नहीं मानते। यह उनका असफल प्रयास है। निष्कर्ष तो यह है कि यदि श्रीसीताजी का पुनर्वनवास नहीं होता तो इस संसार में श्रीरामकथा का प्राकट्य नहीं होता और राम कथा के अभाव में उत्तम चरित्र एवं सभ्यता का सर्वथा अभाव हो जाता। सभी रावण और कुम्भकर्ण बन जाते। इसी कारण से घर घर में रामराज्य की स्थापना हो, सभी का जीवन राममय बन जाए और असन्दिग्ध रूप से रामत्व की स्थापना एवं रावणत्व का सर्वथा विनाश हो, इस हेतु श्रीसीताजी का पुनर्वनवास हुआ। निम्नलिखित तथ्यों का अवलोकन करें –

१) श्रीनारदजी श्रीरामजी के मन हैं तभी तो श्रीरामजी की प्रेरणा से ही श्रीनारदजी ने महर्षि वाल्मीकि जी को सम्पूर्ण राम कथा सुनायी।

इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुत:।

२) श्रीब्रह्माजी श्रीरामजी के कर्म हैं, अतः श्रीब्रह्माजी ने कर्म के रूप में आकर श्रीरामकथा लिखने का आदेश दिया।

वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम्।
अथवा
तच्चाप्यविदितं सर्वं विदितं ते भविष्यति।

३) भगवान् श्रीराम की वाणी ही देवी सरस्वती हैं जो “मा निषाद” के रूप में महर्षि वाल्मीकिजी के मुख से प्रकट हुई।

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा:।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्॥

४) श्रीरामजी की करुणा ही श्रीसीताजी हैं जो महर्षि वाल्मीकिजी के हृदयस्थल पर विराजमान होकर करुणामयी दृष्टि से करुणा की वर्षा करती हुई करुणामयी श्रीरामकथा निर्माण करने का सामर्थ्य प्रदान की।

इस प्रकार मन के रूप में श्रीनारदजी का, कर्म के रूप में श्रीब्रह्माजी का, देवी सरस्वती के रूप में ‘मा निषाद’ की प्रवृत्ति एवं करुणा के रूप में श्रीसीताजी का आना, यह काल्पनिक नहीं ध्रुव सत्य है।

आचार्यस्वरूपा करुणामयी श्रीसीताजी ही श्रीरामकथा की आचार्या हैं जो महर्षि वाल्मीकि को माध्यम बनाकर श्रीरामकथा का निर्माण करती हैं। अतः श्रीसीताजी का पुनर्वनवास लोकहितकारी है। किसी प्रक्षिप्तवादी द्वारा यह कह देना कि श्रीसीताजी का वनवास नहीं हुआ था, यह केवल जड़ता का बोधक है। प्रक्षिप्तवादी बुद्धि का प्रयोग करने वाले तथा लौकिक प्रतिष्ठा जैसी तुच्छ विचारधारा से सङ्क्रमित विचारों का मैं आदर नहीं करता हूँ।

साकेताधीश श्रीमद्राघवेन्द्र सरकार से मेरी यही प्रार्थना है कि प्रक्षिप्तवादियों की बुद्धि शुद्ध हो और हमारे परम शुभेच्छु एवं सुहृत् सन्तशिरोमणि विद्वद्वरेण्य सत्सम्प्रदायनिष्ठ भगवद्भागवताचार्यकैङ्कर्यनिष्ठ एवं तप:स्वाध्यायनिरत स्वनामधन्य स्वामी श्रीभागवतानंद गुरु (श्रीनिग्रहाचार्य) जी द्वारा भ्रम भञ्जनार्थ उत्कृष्ट साधन-साध्य के रूप में प्रस्तुत अद्वितीय ग्रन्थ “मूरख हृदय न चेत” विधर्मियों के भ्रम एवं कुतर्कों का भञ्जन करता हुआ जनमानस में विराजमान हो तथा श्रीलक्ष्मीनारायण से पुनः प्रार्थना करता हूँ कि प्रभु की कृपा से स्वामिश्री निग्रहाचार्य की अजस्रवाहिनी भगवती गङ्गा की अमलधवलधारा के समान पवित्र लेखनी कुतर्कियों के कुतर्कों का सदा-सर्वदा-सर्वकाल आकल्पान्त खण्डन करती रहे।
विदुषामनुचरः,
स्वामी श्रीवासुदेवाचार्य
(श्रीनिवास-श्रीरामानुजदास) जी महाराज
प्रयागराज, उत्तरप्रदेश

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